" कलियों और भौंरों के बीच गुफ्त-गू क्यों नही ...???

बाग-बगीचों में फूल अब भी खिलते हैं , खेत-खलिहानों में फसलें अब भी लहलहाती है, चिड़ियों का चहकना भी कम नहीं हुआ फिर भी न जाने क्यों कुछ कमी महसूस होती है! प्रकृति अब लोगों को हँसमुख रहने उद्यत क्यों नही करती ! पुराने रसिकजन बताते हैं कि पहले फूलों को मुस्कुराने कहना भी नहीं पड़ता था और वो खिलखिला पड़ते थे, कोयल की कुहू-कुहू की आवाज कर्णप्रिय लगती थी, बसन्त की दस्तक तब भी होती थी और अपने आगमन का पूर्वाभास भी करवा जाता था, अब तो कब आकर कब निकल लिये पता ही नहीं चल पाता । हरियाली निगलने में गलियों की क्रांक्रीटिंग ने कोई कमी नहीं की है। नाराज फूल मुस्कुराना पसंद नहीं करते । आसमान में बादल जरुर छाते हैं पर मन के आसमान में उदासी बादल क्यों है भाई ? अंतरतम का पपीहा जरुर पुकारता है " पी कहां है....पी कहां है.? पर " तूती की आवाज " हमेशा की तरह नक्कारखाने के आगे दब कर रह जाती है। जीवन की आपाधापी में शायद हम शिकायत, निंदा , धनलोलुपता और विरोध के दलदल में फंसकर रह गये हैं ! " कलियों और भौरों " के बीच अब गुफ्त-गू क्यों नहीं होती...??? आज का बसंत यह बताने मे भी नाकाम लगता है !

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