'सत्ता' और 'सेना' की संस्कृति

बड़ी खुरदरी खादी की कमीज और खादी का ही पैजामा पहनता है वो. कम से कम दो दिन तो कपड़ा चल ही जाता है लेकिन बीते दो दिनों में उसे कई बार अपने कपडे बदलने पड़ गए.छींक आई तो कपड़ा ख़राब...खांसी आई तो कपड़ा ख़राब. और तो और डकार आने पर भी वही हाल.  रामगुलाम काफी परेशान था. बार-बार दस्त और भूख न लगने की उसे शिकायत थी. घर वालों की सलाह पर उसने एक क्लीनिक की ओर रुख किया. वहां एक आलीशान टेबल लगी थी. उसमे बहुत सारा सामान बिल्कुल व्यवस्थित रखा हुआ था. सामने की कुर्सी में बैठा शख्स अपने गले में नब्ज़ और धड़कन टटोलने वाला यंत्र (स्थेटिस्कोप ) लटका रखा था. मरीज को  देखकर लग रहा था कि उसके शरीर में खून ही नहीं है. पूरा हड्डी का ढांचा लग रहा था वो.उसकी जाँच शुरू हुई. एक तेज रौशनी वाला टार्च जलाकर डाक्टर बोला- मुँह खोलकर फीधे आफ़मान की ओर देखो. जीब दिखाओ. फ़मफ्या क्या है...? फमयबद्ध भोजन  करते हो...? फ़राब पीते हो क्या..? किफ़ी फमारोह के फमागम में तो नहीं गए थे..? रामगुलाम ने सवालों के  यथायोग्य जवाब देते हुए दस्त न होने और भूख न लगने की परेशानी बताई. जाँच-परीक्षण बाद डाक्टर ने कहा- " एक-एक गोली फुबह-फ़ाम खाना. ब्लड प्रेफ़र और फुगर की जाँच करवा लेना. अब  फ़राब का फ़ौक मत पालना. इफ फीफी में मधुरफ है, इसे फ़रबत फ़मझ के मत पी जाना. दवा की खुराक के फाथ दो-दो चम्मच पीते जाना.  दवा खाने और परहेज के बाद भी फेहत में कोई फुधार न दिखे, और कोई फमफ्या खड़ी हो जाये तो पूरी फ़ीफ़ के फाथ और आ जाना. रामगुलाम जम्हाई लेने लग गया. उसे कुछ समझ नहीं आ रहा था. इतने में " ही...ही...ही...ही...ही..." हंसी की आवाज आई.   पीछे खड़ा क्लीनिक का सेवक  हंस रहा था. सौ का फ़ीस देकर जब रामगुलाम क्लीनिक से जाने लगा तो सेवक ने कहा -" ऐसा ही होता है. यहाँ जो एक बार आता है वो दुबारा नहीं आता. कुछ समझ में नहीं आया न, दरअसल साहब ' स ' को ' फ ' बोलते हैं."  बताते चलें, एक बार प्रशासनिक ओहदे के अफसर के घर उनके रिश्तेदार के साथ जाना हुआ. बड़ा बंगला था. बड़ा सा फाटक लगा था. दरबान अपनी ड्यूटी बजा रहा था. लाँन से लगा गार्डन हरे-भरे पौधे और फूलों से सजा हुआ था. पोर्च में पीली बत्ती वाली गाड़ी खड़ी थी. हम समझ गए कि साहब घर पर ही हैं.सूचना हुई, बुलावा आया और हम वहां पहुचे. चूँकि मेरे साथ वाला उनका रिश्तेदार था इसलिए स्वागत  भी अच्छा हुआ. नाश्ता आया फिर चाय आई. दोनों में लम्बी घरेलू बातें होती रही तब तक मै गुटखा चबाते लाँन में टहलता रहा. मै लौटा तब तक बातें चल ही रही थी. साहब कह रहे थे- "तुम तो जानते हो, मेरी माँ ने मुझे 'सेना' बेच-बेचकर पढाया-लिखाया है. आज उन्हीं की मेहनत का नतीजा है कि मै इस जगह पर हूँ"  इस बीच साहब की बेटी कहीं जाने निकल रही थी. उसे देख  साहब कहने लगे-"बेटा, जून का महीना है, घूप तेज है, कपड़ा तो रख ही लो और इनदिनों अब दोपहर के बाद जब भी निकलो 'सत्ता' जरुर रखो." वहां  से विदा हो जब हम जाने लगे तो मैने अपनी जिज्ञासा शांत करने साथ वाले मित्र से कहा- यार, ये पढाई-लिखाई के साथ 'सेना' और जून का महीना और धूप के साथ 'सत्ता' का क्या सम्बन्ध है?" जवाब आया- " असल में साहब छेना को 'सेना' और छत्ता को  'सत्ता' बोलते है."    

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